आर्य और आर्य समाज[संपादित करें]
आज के युग में आर्यों से भिन्न एक गुट की स्थापना दयानन्द सरस्वती जी के द्वारा हुई है। उनका कार्य है भारत को वेदों की ओर लौटाना। वे ईश्वर के अद्वैत तथा अजन्मा सत्ता को स्वीकारकर कृष्णादि के ईश्वरत्व को न मानते हुए उन्हें महापुरुष की संज्ञा देते हैं तथा पौराणिक तथ्यों को पूर्णतया नकारते हैं[3]। हालांकि महर्षि दयानन्द जी के युग में ही उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत यथा पुराण कल्पना तथा अवैदिक हैं, का खण्डन हो चुका है।[4] अतः यहाँ से आर्यों के मत का दो भाग हो गया। एक जो पुराण तथा वेद और ईश्वर के साकार निराकार दोनो सत्ताओं को मानने वाले तथा दूसरे केवल वेद और निराकार सत्ता को मानने वाले।
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